आजकल बहुत कुछ घूमता रहता है मन में। कुछ इकोनॉमिक्स, कुछ कविताएं, कुछ ज्ञान की बातें, बहुत सी भड़ास....। बस ये नहीं समझ आता कि कहें किससे!
एक ज़माने में कुछ 5-6 दोस्त थे, जिनके फ़ोन नम्बर ज़ुबानी याद थे। फ़ोन महंगे थे और बातें खत्म होने नहीं आतीं थीं। अब फ़ोन की पूरी मेमोरी भर हज़ार नम्बर हैं, फ़ोन सस्ते हैं, और कोई दोस्त नहीं, जो खाली साथ बैठ कर सन्नाटा सुने।
फेसबुक तो वाहियात, राजनैतिक, और बकवास जगह हो चुकी है। फेसबुक या व्हाट्सएप्प स्टेटस भी बचकाने काम लगते हैं। क्वोरा पर लिखते थे तो उसमें भी सवाल बेहूदे और कमैंट्स पॉलिटिकल हो चुके हैं। ब्लॉग भी अभी तक लैपटॉप खोलने का मोहताज था। अभी अभी बस ब्लॉग का एप्प ढूंढने का ख़याल आ गया तो ये लिखने लगे। वैसे अब इसको भी कोई पढ़ता तो है नहीं, तो यही सही और यहीं सही।
बड़ी लम्बी रात है तन्हाई की...
कहें न तुमसे तो और किससे जा के कहें,
सियाह ज़ुल्फ़ के सायों, बड़ी उदास है रात।
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