Friday, June 30, 2017

मह्वे-यास

मेरी ज़िन्दगी का हर साल एक ख़ास एहसास और एक ख़ास तर्ज का साल रहा है। बहुत पुरानी तो याद नहीं लेकिन सन १९९१ पतंगबाज़ी का था - दिन, रात, खाते, सोते, पतंग और डोर के नशे का। सन १९९६ था साल खेलने का - क्रिकेट, फुटबॉल, बैडमिंटन, दौड़, शतरंज, स्क्रैबल, चाइनीज़ चेकर - जो भी मिले, जैसे भी मिले, और जितना भी मिले। सन १९९७ था शायरी पढ़ने का। और दीवानावार हो कर घोटा था बशीर बद्र और मिर्ज़ा ग़ालिब को। पढ़ा औरों को भी लेकिन इतनी गहराई और तासीर इन्हीं दो शायरों ने दी।

उम्र के साथ दौर बदले और सन १९९९ रहा साल मुहब्बत का। मतलब न कुछ किया न कुछ हुआ लेकिन साल की शुरुआत की थी देवदास पढ़कर और फिर पूरा साल, देवदास की पारो की दीवानगी में।  खैर, पारो (माने EMMA) को न कभी खबर होनी थी न हुई। और फिर वही हुआ जो उस उम्र की मुहब्बत के बाद होता है - माने सन २००० था लिखने का दौर।  कविताएं, छंद, ग़ज़ल, नज़्म, और कुछ फुटकर कहानियाँ भी। लिखने का वो दौर ऐसा था कि कागज़-कलम जेब में या सिरहाने रहता था।  कभी सड़क किनारे रुक कर कुछ लिख लिया, कभी रात को जग कर, कभी पढ़ाई के बीच में, कभी खाते वक़्त बाएं हाथ से।

वक़्त की एक करवट और आयी जल्द ही। सन २००१ में पापा के साथ व्यापार में गहरे उतरने का भी साल रहा और व्यापार से मोह-भंग का भी। इस मोह-भंग ने सन २००२ की भी दिशा बदल दी। स्नातक ख़त्म करके आगे पढ़ने और सीखने का साल रहा सन २००२।  सन २००४ था साल अपने अंतर्द्वंद में उलझने और अपने को समझने का।  उसी साल में बहुत कुछ नया पढ़ना सीखा जिससे आगे की  दिशा ही बदल गयी। और अगर सन २००४ की उलझन ना होती तो शायद सन २००५ की सफलता भी ना होती।

सन २००५ में आईआईएम अहमदाबाद जाना जीवन की दिशा और दशा निर्धारित कर गया और कई साल शायद कुछ सोचने का वक़्त ही नहीं मिला। सन २००८ और २०१५ थे घूमने और दुनिया  देखने के साल। सन  २०१० और २०१४ थे पदोन्नति के साल - कभी नयी जगहों पर पहुँचने के तो कभी नए रिश्तों तक पहुँचने के साल। सन २०१३ था झटकों का साल और साल ये समझने का कि एडमिनिस्ट्रेशन और पावर-पॉलिटिक्स मेरे बस का नहीं। इतना छल - छद्म और राजनीति झेलने की इच्छा भी नहीं रही कभी।

और अंतत:, सन २०१७ ! ये साल आधा गुज़र चुका है आज तक। और आगे भी ऐसा ही रहेगा, ये तय लगता है। तो ये साल रहेगा नाउम्मीदिओं का साल, मन ऊबने का साल, और अपने में सिमट जाने का साल।  पढ़ाने से मन उचट चुका है, लिखने से दिमाग़ नाउम्मीद कर चुका है, लोगों से बात करने से लेकर घर से बाहर निकलने तक, बस खुद को घसीटते फिर रहे हैं किसी तरह। और अब आगे आने वाले सालों से बस यही एक आस है कि हमको अपने आप में सिमट जाने दें।

कोई मिला तो हाथ मिलाया, कहीं गए तो बातें कीं।  
घर से बाहर जब भी निकले, दिन भर बोझ उठाया है।  

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