Thursday, March 9, 2017

बुझ चुकी उम्मीदों का शहर

लखनऊ... लखनऊ .... लखनऊ... लखनऊ .... लखनऊ... लखनऊ ....

पहले इस नाम में कैसी लज़्ज़त हुआ करती थी... एक आकर्षण, एक पुकार, एक हूक, एक नॉस्टाल्जिया, एक  रौशनी, एक उम्मीद... कभी इस शहर के लिए ग़ज़लें लिखी थी हमने और कभी इसी शहर में न आ पाने के ग़म में वनवास जैसी नज़्में लिखी थी.

और अब... चौथा दिन शहर में... एक शाम बंद दरवाजों में बैठ कर गुज़री, दूसरी लैपटॉप पर. तीसरी घर पर, और चौथी ? पता नहीं लेकिन ये पता है कि अब ये शहर अपनी बाहें नहीं फैलाता... यहां पर बहुत सारी पुरानी यादें तो हैं... टहलने निकलो तो एक किस्म की पुकार - ये रास्ता तो फलां की वजह से याद है, इस सड़क पर तो उसका घर था, ये रेस्टॉरेन्ट की वो टेबल पर तो उसके साथ बैठे थे, और इस पेड़ के नीचे तो फलां के साथ भीगे थे...

लेकिन ये सब यादें लखनऊ को एक बोझिल जगह बनाती जा रही हैं. पहले यहां यादों के साथ उम्मीदें भी थीं - उम्मीदें नयी यादें बनाने की, नए दोस्तों के साथ नये रास्तों पर भटकने की, नए दिनों की खुशबूओं को साथ में पकड़ने की... अब ये शहर केवल मर चुकी यादों और बुझ चुकी उम्मीदों का शहर रह गया है.

और असल हादिसा ये है कि जब एक शहर से उम्मीदें बुझी तो ऐसा नहीं है कि कोई नयी शमआ जल गयी हो। सो इसी नाउम्मीदी के बीच, लखनऊ के एक होटल में बैठे हमारे साथ जगजीत सिंह साहब मिर्ज़ा ग़ालिब को गा रहे हैं :
ज़ुल्मतक़दे में मेरे शबे-ग़म का जोश है
एक शमअ है दलील-सहर सो खमोश है. 

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