Saturday, December 12, 2020

क्या मेरी फ़स्ल हो चुकी? क्या मेरे दिन गुज़र गए?

बहुत पहले, एक बार किसी दोस्त में कहा था कि वो हैंडराइटिंग एक्सपर्ट है। ग्राफोलॉजिस्ट। मेरी हैंडराइटिंग पढ़ते हुए उसने कहा था कि मैं किस परिस्थिति में क्या कर जाऊंगा, ये शायद मैं खुद भी नहीं जानता। उस समय मैं हँस दिया था। दोस्त तो मेरे साथ नहीं रहा, दोस्त की बात रह गयी।

Steve Jobs once said, you can connect the dots only backwards. Well, hindsight is 20/20. 

अक्सर दोस्त कहते थे, अपने बारे में भी कोई शेर कहने को। कभी जब मन और जीवन जोश में हुआ करता था, हम उद्ध्रत करते थे दुष्यन्त कुमार को -
हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया,
हम पर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही।

ख़ैर, तब उम्र देखी ही कितनी थी जब ऐसी लन्तरानियाँ करते थे। उम्र के साथ जब खुद को थोड़ा सा पहचाना, अली सरदार ज़ाफ़री का शेर हमारा परिचय बन गया था -
हमसे बढ़कर ज़िन्दगी को कौन कर सकता है प्यार
और अगर मरने पे आ जाएं तो मर जाते हैं हम।

ऐसे बहुत काम किये, बहुत दिन ऐसे गुज़ारे कि ज़िन्दगी को प्यार किया और फिर एक दिन, एकदम से, मर भी गए। उम्र का एक तीसरा दौर देख रहे हैं अब। किसी किसी दिन लगता है कि बहुत कुछ करना है - कॉलम लिखने हैं, पेपर्स बाकी हैं, यूट्यूब चैनल और क्वोरा और कविता क्लब और नेचर वॉक्स और .....। बच्चन के शब्दों में - 
शेष अभी है मुझमें जीवन, दुनिया अब क्या मुझे छलेगी
चार कदम उठकर मरने पर, मेरी लाश चलेगी।

और फिर, बहुत जल्द ही लगने लगता है कि ऐसा भी क्यूँ ही करना। जीवन में अंतिम प्रेम को भी खोकर, मृत मन का बोझ लेकर, और खुद से खुद को तौलते - परखते - नकारते हुए जिये जाने से भी क्या होगा? गौतम की तरह पलायन भी नहीं कर पाते और घर बैठे बुद्ध होने की त्रासदी जी रहे हैं। अब हम मन से थक चुके हैं और जीवन हमसे थक चुका है। आख़िरश: पता है कि केवल जॉन एलिया का ही शेर काम आने वाला है -
क्या ये जनम हुआ तमाम?
हाँ ये जनम हुआ तमाम!
क्या मेरे दर्द गुज़र गए?
...
नहीं दोस्त, दर्द तो अभी और गुज़रने हैं कई। 

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