ऐसे ही कुछ सोचते, कुछ बिना सोचे दो दिन पहले कुछ लिखा। फिर वो लिखा हुआ मन में गूंजता रहा। वो कुछ यूँ था कि :
बात अगर करने को हमको
मिल जाये अपना सा पागल,
तो फिर क्या दिन रात महीने
जन्मों घूमें जंगल जंगल।
फिर जब वो कुछ मन में कुछ ज़्यादा ही गूंजता रहा तो कुछ और भी सोचना पड़ा।
वैसे, कुछ लोग मिलते रहे हैं ऐसे भी जीवन में, जो पूरे नहीं पर थोड़े बहुत तो थे अपने जैसे ही। लेकिन अगर सच में पूरा अपने जैसा कोई बात करने को मिल गया तो क्या होगा? बहुत समय तक तो शायद कुछ भी नहीं... ना खुलने की आदत, खुलने का डर, और खुल जाने पर भी और पचासों सोच के धागे!
और फिर क्या बात करेंगे अपने जैसे पागल से??!!
शायद कुछ रोना-धोना, कुछ उदास अधूरी मुहब्बतें, कुछ बचकाने से सपने, कुछ अशआर, कुछ अरमान... और शायद और भी बहुत कुछ। सह पाएंगे क्या अपने जैसे non-sequitur, arbitrary बकवास करने वाले को? ये आलोचन, ये छिद्रान्वेषण, ये नैराश्य, ये आत्मश्लाघा, ये आत्म-सन्देह - खुद जैसे को सहन करना तो खुद को सहन करने से भी मुश्किल लगता है।
शायद जो लिखा, वो वैसा नहीं लिखना था। जो नहीं लिखा, वैसा लिखना था।
बात अगर करने को हमको
मिल जाये अपना सा पागल,
तो फिर क्या जन्मों का किस्सा
इक दिन में हो रहेगा दंगल।
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