Saturday, September 3, 2016

फ़ुर्सत के पल

कभी जब फ़ुर्सत हो, मतलब एकदम फ़ुर्सत ... ऐसी फ़ुर्सत कि काम तो चाहे जितने हों, मन पर बिल्कुल न छाये हों... तो ऎसी फ़ुर्सत में मन क्या करेगा?

ऐसी ही फ़ुर्सत है इधर कुछ दिन से. भारत से बाहर निकल कर कुछ ऐसा ही हाल होता है. तकरीबन दो महीने थाईलैण्ड में गुज़ारने हैं पढ़ाने के लिए. हफ़्ते में एक या दो क्लासेज़ होती हैं और बाकी रोज़ पहाड़ सी फ़ुर्सत।

सो ऐसी फ़ुर्सत में मन क्या करेगा? पुराने ब्लॉग पढ़े, एक कविता लिखी, भीष्म साहनी की कहानियाँ पढ़ीं, कैमरा लेकर एक लम्बी दूरी तक टहले भरी धूप में, भूपिन्दर की ग़ज़लें या हरि ओम शरण के भजन सुने और अथाह सोचा.

बहुत कुछ सोचने के बीच ये भी सोचा कि कोई देश अच्छा या बुरा, अपना या पराया कैसे लगता है. भाषा? जब दक्षिण भारत में घूम रहे थे तब भी भाषा अलग थी लेकिन अपनत्व तो कभी कम नहीं लगा. मौसम? यहाँ थाईलैण्ड का मौसम इन्दौर जैसा ख़ूबसूरत नहीं लेकिन शायद कलकत्ता या मुम्बई जैसा तो है ही - उमस और तीखी धूप से भरा. पेड़-पौधे या जीव-जन्तु? यहाँ भी वही मैना, कबूतर, गौरैया, अमलतास, बादाम, और गुलमुहर हैं जो वहाँ होते हैं और दक्षिण भारत या मिज़ोरम या गोआ में तो विभिन्नता इससे कहीं ज़्यादा थी. मुद्रा? शायद. लेकिन अमेरिका या दुबई की मुद्रा भी तो अलग थी. वो इतने पराये क्यों नहीं लगे?

खैर, हमें क्या पता! क्योंकि हमारे लिए भारत में सब अपना सा लगता रहा और देश के बाहर सब पराया. ये फ़ुर्सत भी अपनी नहीं, परायी है. तभी तो इस फ़ुर्सत से कुछ अच्छा नहीं, सिर्फ़ ये अनर्गल प्रलाप ही निकला. 

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