क्वोरा पर अक्सर लोग पूछते हैं कि हिन्दी साहित्य में नया और अच्छा क्या लिखा जा रहा है? सबसे बड़े उपन्यासकार, नए कहानीकार, कोई नया नाटक, नए कवि - कुछ नयी रचनाएं नयी सदी का प्रतिनिधित्व करती हुयी.... कई बार प्रयास किया कि लोगों को बताने के लिए ही सही, कुछ नाम दे सकूँ - ये एक नए और बढ़िया लेखक हैं, नयी कहानियों का पता यहाँ मिलेगा, ये पत्रिका उम्दा है वगैरह वगैरह !
अफ़सोस की बात है लेकिन हिंदी साहित्य मृत है - अभी से नहीं, पिछले कई वर्षों से ! हाँ, कभी-कभार एक-दो धड़कन या नाड़ी शायद चल जाती हो लेकिन लाश सड़ने की हद तक जा चुकी है. और हिन्दी साहित्य को मारा किसने ? अंग्रेज़ी ने या सरकार ने नहीं, गरीबी या बाज़ारवाद ने नहीं .… हिन्दी साहित्य के हत्यारे हैं उसके अपने पुरोधा, युग-प्रवर्तक, और वाचक. वे ही पुरोधा जिन्होंने अपनी राजनैतिक और वैयक्तिक महत्वाकांक्षाओं के चलते हिन्दी साहित्य की बलि चढ़ा दी। पत्रिकाओं पर कब्ज़ा किया, केवल उनको छापने दिया जो चाटुकार थे या घटिया या बिकाऊ या ये सभी कुछ। जो वाम नहीं था, उसकी भद्द पीटी. जो राजनीति के दलदल में लंगोट खोल कर उतरने को तत्पर थे, उनको छापा, उनको ही पुरस्कार दिए, और उनको ही भौंडेपन के साथ लेखक-आलोचक-नीति नियंता नियुक्त करवाया। हिन्दी के कवि-सम्मलेन तो कब का चुटकुलेबाज़ी, बेहूदगी, राजनीति, गाली-गालौच, और अश्लीलता का पर्याय बन चुके हैं।
दर असल ये सब पढ़ा तो बहुत बार था - रवीन्द्र नाथ त्यागी की कलम से, जहाँ वो एक तरफ अपने खेमे के भारती जी को भगवान बनाते थे और दूसरे खेमे के अज्ञेय को शैतान। वैसे ही काँता भारती की किताब "रेत की मछली" भारती का दूसरा पहलू खोलती दिखती है। और पता चलता है कि हमाम में सब ही.…… खैर, आज ये सब उभर आया क्योंकि कहाँ से तो होते हुए पता चला की मन्नू भंडारी ने एक लेख लिखा था तहलका के लिए "कितने कमलेश्वर"। बस वही पढ़कर एक दबा हुआ गुबार सतह पर आ गया.
हिन्दी साहित्य के इन हत्यारों की सूची इतनी छोटी नहीं और कुछ हत्यारे अभी भी इस लाश को खसोटने में व्यस्त हैं - नामवर सिंह, मुद्राराक्षस, काशीनाथ सिंह, उदय प्रकाश, और भी कई राजनैतिक भाण्ड! इन सबको हिन्दी साहित्य की मृतात्मा की हाय लगे।
अफ़सोस की बात है लेकिन हिंदी साहित्य मृत है - अभी से नहीं, पिछले कई वर्षों से ! हाँ, कभी-कभार एक-दो धड़कन या नाड़ी शायद चल जाती हो लेकिन लाश सड़ने की हद तक जा चुकी है. और हिन्दी साहित्य को मारा किसने ? अंग्रेज़ी ने या सरकार ने नहीं, गरीबी या बाज़ारवाद ने नहीं .… हिन्दी साहित्य के हत्यारे हैं उसके अपने पुरोधा, युग-प्रवर्तक, और वाचक. वे ही पुरोधा जिन्होंने अपनी राजनैतिक और वैयक्तिक महत्वाकांक्षाओं के चलते हिन्दी साहित्य की बलि चढ़ा दी। पत्रिकाओं पर कब्ज़ा किया, केवल उनको छापने दिया जो चाटुकार थे या घटिया या बिकाऊ या ये सभी कुछ। जो वाम नहीं था, उसकी भद्द पीटी. जो राजनीति के दलदल में लंगोट खोल कर उतरने को तत्पर थे, उनको छापा, उनको ही पुरस्कार दिए, और उनको ही भौंडेपन के साथ लेखक-आलोचक-नीति नियंता नियुक्त करवाया। हिन्दी के कवि-सम्मलेन तो कब का चुटकुलेबाज़ी, बेहूदगी, राजनीति, गाली-गालौच, और अश्लीलता का पर्याय बन चुके हैं।
दर असल ये सब पढ़ा तो बहुत बार था - रवीन्द्र नाथ त्यागी की कलम से, जहाँ वो एक तरफ अपने खेमे के भारती जी को भगवान बनाते थे और दूसरे खेमे के अज्ञेय को शैतान। वैसे ही काँता भारती की किताब "रेत की मछली" भारती का दूसरा पहलू खोलती दिखती है। और पता चलता है कि हमाम में सब ही.…… खैर, आज ये सब उभर आया क्योंकि कहाँ से तो होते हुए पता चला की मन्नू भंडारी ने एक लेख लिखा था तहलका के लिए "कितने कमलेश्वर"। बस वही पढ़कर एक दबा हुआ गुबार सतह पर आ गया.
हिन्दी साहित्य के इन हत्यारों की सूची इतनी छोटी नहीं और कुछ हत्यारे अभी भी इस लाश को खसोटने में व्यस्त हैं - नामवर सिंह, मुद्राराक्षस, काशीनाथ सिंह, उदय प्रकाश, और भी कई राजनैतिक भाण्ड! इन सबको हिन्दी साहित्य की मृतात्मा की हाय लगे।
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