किसी किसी दिन लखनऊ याद आता है और आता ही चला जाता है। जब बहुत याद आती है तो वही करते हैं जो कर सकते हैं - लिखना! कुछ रोज़ पहले लखनऊ की पतंगों पर एक नज़्म लिखी थी। फिर कुछ लिखा गलियों पर, जो परवान नहीं चढ़ा अभी तक। परसों रात, रामकथा पढ़ रहे थे और सोच रहे थे और रो रहे थे और ये लिखा गया फिर - किसके कारण क्या हुआ, ये बेमतलब है।
बरसों पहले
इक नगरी ने
अपने प्यारे राजकुँवर को
भेजा था
बनवास पे
चौदह बरस को
और फिर
ग़म में उसके
खुद ही
गुमसुम
उजड़ी उखड़ी
रही मुन्तज़िर।
हमको भी
लखनऊ से बिछड़े
बरस
दसेक तो
बीत चुके हैं
चंद बरस पर
दम अटका है
चार बरस पे
आस लिखा है
देखें
लखनऊ की किस्मत में
कब तक
ये
बनवास लिखा है!
3 comments:
sunder, ati sunder
Nicely put Sid
Thanks Vipul :)
Thanks Dev :)
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