Tuesday, July 13, 2010

The problem of reading too much

I, like almost everyone else, want and like to believe that my life is unique - the situations, the experiences, the struggles, the wins, the falls, and the memories - everything is uniquely mine. But then, there lies the problem with reading literature - I know that all my life has been lived many times before. In bits and pieces, somebody somewhere has been through all this and that is how one man's misery became another man's literature.

However, my problem is slightly bigger than just pieces of my life being in someone else's story. My problem is of reading too much of it. As a consequence, every time I face a situation, something or the other from some long forgotten piece of literature pops up inside my head and tells me how un-unique and clichéd my life is (and perhaps so is the life of all of us). Copying some pieces of the pieces of literature here, which I remember frequently and realize the problem of reading too much...

राम ने सीता को छोड़ा, कृष्ण ने राधा को, बुद्ध ने यशोधरा को, तो दुष्यन्त ने शकुन्तला को, नल ने दमयन्ती को और भतृहरि ने पिंगला को... इसलिए समर प्रभा को छोड़कर भागने के सांस्कृतिक अभिशाप की नियति से बँधा है। मुझे अक्सर आश्चर्य होता है कि हमारे यहाँ वे कहानियाँ क्यों महाकाव्यों का आधार नहीं बनीं, जहाँ मानवीय प्यार के लिये समाज से विद्रोह किया गया हो।
राजेन्द्र यादव, हंस

तुम ठीक ही कह रहे हो। 'टाइम इज़ द ग्रेटेस्ट हीलर।' असल में समय के साथ कुछ हद तक सब ठीक ही हो गया है। हम अपनी-अपनी दुनिया में हैं। पर हम पेड़ नहीं हैं कि इस पतझड़ के बाद फिर से वसंत आयेगा। बीता समय अंग-भंग की तरह है। उसकी क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती। स्थितियों के साथ समझौता ही किया जा सकता है। अगर रहना है तो स्थितियों के मुताबिक ढलना होता है। अपनी कमी को स्वीकार करना होता है। अहं और आक्रामकता ज़िन्दगी नहीं है।
पंकज बिष्ट, उस गोलार्द्ध में

मैं मामूली आदमी नहीं हूँ। मैनें अपराध किये हैं, करता हूँ, झूठ बोलता हूँ, धोखा देता हूँ। सब करते हैं, सब बोलते हैं, सब देते हैं। पर वे अपराधी महसूस नहीं करते, मैं करता हूँ। समाज का अपराध-बोध मैं अपनी रगों में लिये भटक रहा हूँ।
मृदुला गर्ग, मैं और मैं

मैं सोचता बहुत था। यह मेरा स्वभाव बनता जा रहा था कि मैं जब कभी अकेला होता तो कुछ देर पहले घटित घटनाओं के बारे में सोचता रहता। हर कही-सुनी बात का एक-एक शब्द सोचता, पड़ताल करता। फिर अच्छी बातें एक कोने में बैठ जातीं और खराब बातें मकड़ी की भाँति टेंशन का जाला बुनकर मुझे फँसा लेतीं। यह सब सोचकर मुझे बहुत अच्छा लगता था। इस प्रकार सोचना मेरी खुराक थी। मैं रोटी बिना ज़िन्दा रह सकता हूँ पर सोच के बिना नहीं।
सिमरदीप सिंह, जटा शंकर

उसे लगा, उसके प्रेम के क्षण नितांत उसके अपने थे - ह्रदय में कहीं बहुत गहरे संजोकर रखे हुए। उन क्षणों को इस प्रकार उघाड़कर किसी के भी सामने रख देना उचित तो नहीं था। वह 'किसी' चाहे केतकी ही क्यूँ न हो। उसका वह प्रेम, चाहे असफ़ल ही सही, उसके लिये आज भी सम्मान की वस्तु था।
नरेन्द्र कोहली, प्रीति-कथा

And this is just a tip of the iceberg, as there are so many more pieces of my life that others have lived in fact and in fiction... and I am just collecting it... living life in bits and pieces!!

3 comments:

deep said...

:-) too good.. ACTUALLY enjoyed reading..every bit of it!!

Icarus said...

nice one... specially the quote by Samardeep Singh

Meghna said...

Nicely written! Reflects some close to home thinking! Perhaps that too was not as original as I thought them to be... translated through waves of existence from one being to another!

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