Thursday, January 9, 2020

2020 शायद !

शायद सन 1999 था जब पहली बार २०२० का ज़िक्र सुना था।  ए पी जे ए कलाम की किताब ने एक सपना बुना था कि बहुत दूर लगते भविष्य में, २०२० जैसा कुछ होगा।

कोई कहता था कि दिन गुज़रते देर लगती है, साल गुज़रते नहीं। २०२० आ भी गया है और 1/52 से ज़्यादा गुज़र भी गया। बाकी का भी गुज़रते शायद देर न लगे। पिछले साल कैसे थे, वो रोना तो बहुत बार हो चुका। लेकिन पिछला साल कैसा था ? ब्लॉग पर लिखना बहुत हुआ, बाकी कुछ नहीं लिखा। इस साल बहुत लिखना है, बस यही सोचा है। दिन गुज़र गए हैं बिना कुछ लिखे, शायद साल भी गुज़र जाए।

और इस साल का 1/52 भी अभी तक कैसा रहा ? भक्तिकालीन कवि कहते थे कि ये शरीर पिंजरा है और आत्मा पक्षी। आत्मा और परमात्मा का तो पता नहीं, पिंजरा ज़रूर असह्य होने लगा है। नींद गायब है, बेचैनी इतनी कि रात के ढाई बजे, ये बकवास कर रहे हैं।

जॉन एलिया कहते थे - ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता ... और शायद इसी प्रश्न को हल करने गौतम सिद्धार्थ निकल पड़े थे तकरीबन ढाई हज़ार साल पहले, एक रात, ढाई बजे ! उन्होंने जो कहा, वो सबको पता है। हम जो कहेंगे, वो शायद इसी ब्लॉग पर लिखा मिले। शायद !

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