कल रात बारिश होती रही और कई बार मन किया कि बस भीगते हुए चलना शुरू कर दूँ उस बारिश में। उस समय लगा कि चलता रहूँ समय और दूरियों के पार। उस समय लगा कि सदियों और शहरों की दूरियों के पार जाकर तुमको बाहों में भरकर चूम लूँ।
फिर सवाल जागा कि तुम हो कौन जिस तक मैं ऐसे ही चलता हुआ चला जाऊं? अब तो कोई भी नहीं, जिस तक मैं ऐसे बारिश में चलता हुआ चला जाऊं सदियों और शहरों के पार, समय और दूरियों के पार। फिर मैं वापस घर लौट गया, बारिश में बिना भीगे। खाली तन के भीगने से क्या होगा, जब मन सूखा ही रह जाए।
रात को बिस्तर में लेट कर बारिश को सुनते हुए, कुछ पुरानी कवितायें ढूँढीं। उनको अपनी ही आवाज़ में रिकॉर्ड कर के सुना। तब जा कर मन कुछ शांत हुआ। और आज सुबह तुमने फिर से शांत होते पानी में पत्थर फेंक दिए।
आगे की बात जानना है अब तुम को ना ?!! लिख तो देता मजाज़ के या जॉन के या बच्चन के या दुष्यन्त के या पवन के शब्दों में.... लेकिन कभी कभी जो होता है, वो अपने शब्दों में लिखना पड़ता है। और वो सब ब्लॉग पर नहीं लिखा जाता।
आगे की बात जानना है अब तुम को ना ?!! लिख तो देता मजाज़ के या जॉन के या बच्चन के या दुष्यन्त के या पवन के शब्दों में.... लेकिन कभी कभी जो होता है, वो अपने शब्दों में लिखना पड़ता है। और वो सब ब्लॉग पर नहीं लिखा जाता।
आज डायरी में लिखना पड़ा !
2 comments:
I cannot agree more.. वो सब ब्लॉग पर नहीं लिखा जाता
I think I have said it before, your writing reminds me of Gulzar, often!!!
Deep - 😊 merci beaucoup
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