Thursday, August 22, 2019

कहाँ पे आ गए हैं हम

Today, someone told me to write stories because I wove something for that someone. Before that, an old blog-friend told me that my writing reminds them of someone big and admirable.

Some days ago, for the Nth time, a student told me to have a stand-up of my own. Before that, an old friend met after a long gap and asked if I had published my poems yet.

Sometimes, I wonder, if that is what I should be doing? Perhaps, yes if so many feedbacks are taken into account. Sometimes, I wonder, if I will be happy writing and writing for pleasure like that? Perhaps, yes if my inner-response is to be believed. Sometimes, I wonder, if that is where my expression, my liberation, my repentance is? Perhaps, yes, if the lightness of my being post-writing is weighed in.

And then, I wonder, why don't I? Because life is too demanding? Because some short-term goals are too close? Because I am chasing the other mirages for now? As always, I have no answers. Or perhaps, as always, I have the answers but I am too scared to look at those honestly. Or perhaps, not only my answers but also my questions are wrong too.

Alas! Someone has already written what I am feeling right now -

न ज़िन्दगी विमुक्त है न मृत्यु का कसाव है
कहाँ पे आ गए हैं हम ये कौन सा पड़ाव है।  

असत्य है न सत्य है विशिष्ट द्वैतभाव है
कहाँ पे आ गए हैं हम ये कौन सा पड़ाव है।  

Saturday, August 3, 2019

आज डायरी में लिखना पड़ा !

कल रात बारिश होती रही और कई बार मन किया कि बस भीगते हुए चलना शुरू कर दूँ उस बारिश में। उस समय लगा कि चलता रहूँ समय और दूरियों के पार। उस समय लगा कि सदियों और शहरों की दूरियों के पार जाकर तुमको बाहों में भरकर चूम लूँ। 

फिर सवाल जागा कि तुम हो कौन जिस तक मैं ऐसे ही चलता हुआ चला जाऊं? अब तो कोई भी नहीं, जिस तक मैं ऐसे बारिश में चलता हुआ चला जाऊं सदियों और शहरों के पार, समय और दूरियों के पार। फिर मैं वापस घर लौट गया, बारिश में बिना भीगे। खाली तन के भीगने से क्या होगा,  जब मन सूखा ही रह जाए। 

रात को बिस्तर में लेट कर बारिश को सुनते हुए, कुछ पुरानी कवितायें ढूँढीं। उनको अपनी ही आवाज़ में रिकॉर्ड कर के सुना। तब जा कर मन कुछ शांत हुआ। और आज सुबह तुमने फिर से शांत होते पानी में पत्थर फेंक दिए।

आगे की बात जानना है अब तुम को ना ?!! लिख तो देता मजाज़ के या जॉन के या बच्चन के या दुष्यन्त के या पवन के शब्दों में.... लेकिन कभी कभी जो होता है, वो अपने शब्दों में लिखना पड़ता है। और वो सब ब्लॉग पर नहीं लिखा जाता।
आज डायरी में लिखना पड़ा !

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