इंदौर में आज से थोड़ी थोड़ी ठण्ड पड़नी शुरू हो गयी है... गुलाबी, रूमानी, अलसायी ठंडक!
और ऐसे उपन्यास पढ़ने वाले मौसम में, कविता लिखने वाले मौसम में, कैमरे के साथ टहलने वाले मौसम में, लॉन में टहलते हुए झरते-उगते पत्ते निहारने वाले मौसम में, चिड़ियों की चहचहाहट सुनते सुनते चाय पीने वाले मौसम में, और किसी दोस्त के संग घंटों तक चुप बैठे रहने वाले मौसम में...
ऐसे मौसम में हम यहाँ इंटरनेशनल ट्रेड की किताब लिए जाने किस लोक से किस लोक में भटक रहे हैं.
ग़ालिब होते तो शायद ऐसा मिसरा उठाते कि:
वो दिन गए कि कहते थे नौकर नहीं हूँ मैं
और फैज़ आगे जोड़ते कि:
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझसे भी दिलफरेब हैं ग़म रोज़गार के...
और जॉन एलिया बात को ऐसे ख़त्म करते कि बस:
वही रोज़गार की मेहनतें, के नहीं है फुर्सत-ए-यक-नफस
यही दिन थे काम के और हम, कोई काम भी नहीं कर रहे
और हम, ठण्ड के नाम पर एक ठंडी आह भर कर...., इतना ही कहेंगे कि:
अफ़सोस इनमें से कोई भी नहीं बाकी और
हम जो बाकी हैं हमें ज़िन्दगी तमाम कर रही है
3 comments:
Amazing lines Sir...Jagjit Singh ki kisi Gazal ki lines ki yaad dila rhi hain..
अब में राशन की कतारों में नज़र आता हूँ
अपने खेतों से बिछड़ने की सज़ा पाता हूँ...
After reading this I remembered these lines...जाड़ों की नर्म धुप और आँगन में लेट कर
आँखों पे खिंच कर तेरे दामन के साए को
औंधे पड़े रहे कभी करवट लिए हुए
After reading this I remembered these lines...जाड़ों की नर्म धुप और आँगन में लेट कर
आँखों पे खिंच कर तेरे दामन के साए को
औंधे पड़े रहे कभी करवट लिए हुए
Post a Comment