Saturday, August 30, 2014

जीवन देता निशा निमंत्रण

हरिवंश राय बच्चन भले ही मधुशाला के लिए प्रसिद्ध हों, मेरे अंतर तक जो पहुंची है, वो है सतरंगिनी या फिर निशा निमंत्रण. और कुछ दिन ऐसे होते हैं कि जब निशा निमंत्रण पढ़ने के अलावा कुछ और नहीं किया जा सकता. कुछ पंक्तियाँ हैं जो गाहे-बगाहे अच्छे बुरे समय याद आ जाती हैं:


हँस रहा संसार खग पर,
कह रहा जो आह भर भर--
’लुट गए मेरे सलोने नीड़ के तॄण पात।’ साथी!
प्रबल झंझावात, साथी!
****
गंध-भरा यह मंद पवन था,
लहराता इससे मधुवन था,
सहसा इसका टूट गया जो स्‍वप्‍न महान, समझ पाओगे?
तुम तूफ़ान समझ पाओगे?
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जानता यह भी नहीं मन--
कौन मेरी थाम गर्दन,
है विवश करता कि कह दूँ, व्यर्थ जीवन भी, मरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!
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आज मुझसे बोल, बादल!
तम भरा तू, तम भरा मैं,
गम भरा तू, गम भरा मैं,
आज तू अपने हृदय से हृदय मेरा तोल, बादल!
आज मुझसे बोल, बादल!
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सत्य मिटा, सपना भी टूटा,
संगिन छूटी, संगी छूटा,
कौन शेष रह गई आपदा जो तू मुझ पर लानेवाली?
रो, अशकुन बतलाने वाली!
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जीवन का क्या भेद बताऊँ,
जगती का क्या मर्म जताऊँ,
किसी तरह रो-गाकर मैंने अपने मन को बहलाया है!
मैंने दुर्दिन में गाया है!
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प्यार पूजा थी उसीकी,
है उपेक्षा भी उसी की,
क्या कठिन सहना घृणा का, भार पूजा का सहा था!
देवता उसने कहा था!
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जब नयनों में सूनापन था,
जर्जर तन था, जर्जर मन था,
तब तुम ही अवलम्ब हुए थे मेरे एकाकी जीवन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!
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बात पिछली भूल जाओ,
दूसरी नगरी बसाओ’—
प्रेमियों के प्रति रही है, हाय, कितनी क्रूर दुनिया!
आज मुझसे दूर दुनिया!
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दुख सब जीवन के विस्मृत कर,
तेरे वक्षस्थल पर सिर धर,
तेरी गोदी में चिड़िया के बच्चे-सा छिपकर सोया था!
मैं कल रात नहीं रोया था!
****
इसे कहूँ कर्तव्य-सुघरता
या विरक्ति, या केवल जड़ता,
भिन्न सुखों से, भिन्न दुखों से, होता है जीवन का रुख भी!
साथी साथ ना देगा दु:ख भी!

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