Sunday, November 4, 2012

शुक्रिया लखनऊ शुक्रिया हिमांशु वाजपेयी


इस बार लखनऊ जाना काफ़ी दिल तोड़ने वाला तजुर्बा रहा। लखनऊ हवाई अड्डे के पुराने टर्मिनल की जगह, जो लखनऊ की किसी पुरानी इमारत या पुराने दोस्त जैसा था, इस बार नया टर्मिनल मिला - किसी अन्जान अर्दली जैसा।

उसके आगे जो दिल टूटना शुरु हुए तो दस दिन तक शहर की आबोहवा से लेकर तहज़ीब तक, सड़कों से लेकर बाशिंदों तक, और लहज़े से लेकर अपनापे तक, बस, टूटते ही रहे।

इस बार पूरे दस महीने बाद लखनऊ जाने की हुमक वैसी थी जैसे अपनी पुरानी महबूबा से  मिलने का जोश। और लखनऊ का रंग कुछ ऐसा जैसे उस महबूबा को किसी और का हुआ देखना।

न पुराने दोस्त बचे थे, न पुराने अड्डे, न पुराने रास्ते, न पुरानी मंज़िलें। ऐसे में अगर पूरे शहर में कोई दिलासा देने वाली शय मिली थी तो केवल ये तस्वीर वाले साहब - कवि, पत्रकार, लेखक, मित्र, बन्धु, भ्राता, और अड्डेबाज़ी और आवारगी के साथी। इस बार लखनऊ मे अगर हिमांशु वाजपेयी जी से नहीं मिला होता (पूरे साढ़े तीन बार) तो अगली बार लखनऊ की तरफ़ कदम नहीं उठते।
शुक्रिया मित्रवर,
मेरे शहर को 
और मेरी जड़ों को 
मेरे भीतर 
जीवित रखने के लिये 
:) 

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