Saturday, August 4, 2012

एक नज़्म माज़ी के नाम


लिखने पता नहीं क्या बैठा था, लिख पता नहीं क्या गया। जो लिख गया वो, हमेशा की तरह, समझने वाला एक ही है। और अब उसकी भी कोई खबर नहीं आती। खैर, इसी बहाने लेकिन एक नज़्म तो हुई - उन पुराने दिनों के नाम - 

तुम्हे पता भी नहीं 
वो
तुम्हारे वास्ते 
सुबहों को 
लाता था पपीते जो 
तुम्हारी इक हँसी के वास्ते  
चुन-चुन के 
रटता था लतीफ़े जो 
तुम्हारे वास्ते 
भर-भर के 
पढ़ता था कसीदे जो 
तुम्हारे वास्ते जिसने 
बदल डाले अकीदे वो 

जिसे तुमने कभी अपनी 
कहानी का कोई 
फ़रियाल लिखा था 
कि जिसके कंधे पर 
सर रख के तुमने 
कुछ न बोला था 
कि जिसके सामने तुमने 
बिछा दीं बारहा 
तस्वीरे 
अपने माज़ी की सारी 
कि जिसके सामने तुमने 
सभी मासूम अपनी ख्वाहिशें 
ज़ाहिर करी थीं ना 

वही इक शख्स 
जिसकी इल्तिजा बस इतनी रहती थी 
कि तुम हँसती दिखो हरदम 
वही इक शख्स 
जिसकी हर दुआ इतनी ही रहती थी 
कि आसूदा रहो हरदम 
वही इक शख्स 
जिसका एक ही इसरार था तुमसे 
बनो ता-ज़ीस्त के हमदम 
वही इक शख्स 
अब हर शब 
तुम्हें यूँ याद करता है 
किसी दम दम निकल जाये 
तो शायद तेरे दामन तक 
कोई फिर रास्ता निकले
कि अब तो इस जनम के रास्ते सारे 
बस इक अंधेरे कमरे तक 
पहुँच कर 
खत्म होते हैं।  

4 अगस्त 2012 

3 comments:

deep said...

no words to express... its an awesome composition. Loved it !!!

Sid said...

Thanks Deep for holding me up...good to know that you are still reading, even though you've stopped writing!

deep said...
This comment has been removed by the author.

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