Since I abandoned my poetry blog some years ago, I never shared my poems on any other forum.
However, last month I shared a ghazal through a Facebook note. Sharing the same here again:
दौरे-हाज़िर में रह रहा हूँ मैं
किस कदर ज़ुल्म सह रहा हूँ मैं।
अपनी आवाज़ भूल जाता हूँ
कितना खामोश रह रहा हूँ मैं।
इक समन्दर है मेरे भीतर ही
और चुपचाप बह रहा हूँ मैं।
कभी उठा था आस्माँ की तरह
अब तो टुकड़ों में ढह रहा हूँ मैं।
ये जहाँ मात चाहता था सदा
और हमेशा ही शह रहा हूँ मैं।
जब वो यह चाहते थे वो था मैं
चाहिये वो तो यह रहा हूँ मैं।
मुझको फिर से गलत कहेंगे वो
फिर से कुछ उनसे कह रहा हूँ मैं।
1 comment:
Superb :)
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