एक उम्र आती है जब व्यक्ति यह समझता ही नहीं, स्वीकार भी कर लेता है कि उसका जीवन, उसके अनुभव अद्वितीय नहीं। यह सब कोई न कोई और जी चुका है, कोई न कोई और कह चुका है, कोई न कोई और लिख चुका है। जब भी अपने जीवन को देख कर कुछ लिखने का मन होता है, याद आ जाता है कि यह तो कोई और ही लिख चुका है। जैसे कि ये लिखा था उषा प्रियम्वदा ने पचपन खम्भे लाल दीवारें के पृष्ठ ११४ पर:
"वह नील से यह कह न पाई कि तुम मुझे भुला देना, या समय सब भुला देता है। सांत्वना के ऐसे घिसे पिटे शब्द उसके होठों पर न आये। वह जानती थी कि कुछ रेखाएँ ऐसी भी होती हैं, जिन्हें समय भी मिटा नहीं पाता। भूलना क्या होता है ? मन समझाने की बातें, कायरों के बहाने ! जो कुछ नील ने उसे दिया और जो कुछ नील ने उससे पाया, उस विनिमय ने उन दोनों को साधारण व्यक्तियों से अपांक्तेय कर दिया।
दैनिक कार्यों में रत हो कर, नाते-रिश्ते निभाते हुए भी, अब वे पहले से नहीं हो पाएंगे, क्योंकि उनका कुछ अंश एक-दूसरे जाएगा ... किसी छोटी सी बात, किसी की हँसी, किसी के देखने का ढंग या किसी अपरिचित की कमीज़ के रंग से नील फिर जी उठेगा। अलग होने के बाद रहना राख के ढके कोयलों पर चलना होगा। न जाने कौन सा अंगारा दहकता रह जाए और पाँव जला दे।"
तो अब बताओ, इस बात को दोबारा कहने से क्या ही होगा! इसीलिए जब कोई फेसवॉश हाथ आये तो, कोई जलेबी वाला गाना सुनाई दे जाए तो, या कोई डब्बा रख कर ढक्कन फ़ेंक देने की ही बात कर दे तो ... और ऐसे कितने ही मौकों पर एक अंगारा सुलगता सा लग जाए तो ...
तो ऐसे में बहुत कुछ याद आता है, बहुत कुछ मन से हो कर गुज़र जाता है, और बहुत कुछ कहने का मन कर जाता है है। और फिर एकदम से याद आता है कि जो कहना था, वो तो पंकज बिष्ट ने लिख दिया था १९९२ में अपनी कहानी - उस गोलार्ध में -
"तुम ठीक ही कह रहे हो। 'टाइम इज़ द ग्रेटेस्ट हीलर।' असल में, समय के साथ कुछ हद तक सब ठीक ही हो गया है। हम अपनी - अपनी दुनिया में हैं। पर हम पेड़ नहीं हैं कि इस पतझड़ के बाद फिर से वसंत आएगा। बीता समय अंग-भंग की तरह है। उसकी क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती। स्थितियों के साथ समझौता ही किया जा सकता है। अगर रहना है तो स्थितियों के मुताबिक़ ढलना होता है। अपनी कमी को स्वीकार करना होता है। अहं और आक्रामकता ज़िन्दगी नहीं है।"
मैं अपनी पुरानी डायरी खोलता हूँ, इन सबको पढ़ता हूँ, और फिर कहने को कुछ रहता ही नहीं। फिर खुद से भागने को रेडियो खोलता हूँ, गुलज़ार का एक गाना चल रहा है -
तुम्हें ये ज़िद थी कि हम बुलाते, हमें ये उम्मीद वो पुकारें
है नाम होठों पे अब भी लेकिन, आवाज़ में पड़ गयीं दरारें .....
उसे भी बंद करना पड़ा। यहाँ से भी भाग कर एक किताब उठायी है। गणित की किताब और पहले पृष्ठ पर लिखा मिला है - जीत जाओगी अगर तुम हार जाओ।