कहा था ना, मेरी सारी ज़िन्दगी कोई न कोई तो अपने शेरों में, अपनी नज़्मों में, अपनी किताबों में लिख चुका है। अब खुद ही कहना हो तो अलग बात है वरना केवल दोहरा देने भर से ही सब बात हो जाती है। जैसे जॉन एलिया का ये शेर -
दौर अपनी खुशतरतीबी का रात बहुत ही याद आया
अब जो किताबे-शौक़ निकाली, सारे वरक़ बरहम निकले
ऐसा लगता है जैसे ज़िन्दगी चुक गयी है। एक और मित्र का उद्ध्र्त कथन याद आया - I live in the past because most of my life is there. ऐसे ही कुछ और शेर हैं जो ऐसे कह देते हैं कि हमको न कहना पड़े।
अपना दिल भी पुरानी दिल्ली है
जो भी गुज़रा है, उसने लूटा है.
लेकिन हमेशा ऐसा नहीं था। एक अच्छा भी दौर गुज़रा है।
हम सुने और सुनाये जाते थे
रात भर की कहानियाँ थे हम
और सुनाने को तो वैसे इसके आगे शेर भी बहुत से हैं और किस्से भी.... लेकिन
सुना सिद्धार्थ* साहब महफिलों की जान होते थे
आजकल चुप हैं, न हँसते हैं न रोते हैं।