Sunday, November 23, 2014

मेरी प्रिय हिन्दी कविताएं

जबसे Books 10+10  लिखा है, तबसे मन में साहित्य से जुड़ी सूचियाँ घूम  रही हैं. और फिर Poetic Geniuses लिखे भी बड़े दिन हुए. तो सोचा कि क्यों न एक सूची बनाई जाए अपनी प्रिय हिन्दी कविताओं की. काम मुश्किल है - कविताएं पढ़े कई दिन हुए, पढ़ा भी नहीं कभी इतना अधिक कि कोई विशेष ज्ञान का दावा हो. लेकिन जो भी थोड़ा बहुत पढ़ा है और याद रहा, उसमें से कुछ यहाँ उद्धृत कर रहे हैं.

बस कुछेक नियम रखे हैं सरलीकरण के लिए - हिन्दी को आधुनिक खड़ी बोली तक ही सीमित रखा है, मतलब अवधी, ब्रज, मैथिली, और हिन्दुस्तानी इत्यादि को इस सूची के लिए नहीं सोचा है. किसी भी कवि की एक से अधिक रचना नहीं ली है और इसके कारण बहुत कुछ अन्यथा भी छूटा. और चूंकि कहीं न कहीं रुकना था सो सबसे महत्त्वपूर्ण पन्द्रह पर रुक गए अन्यथा 'हरि अनंत, हरि कथा अनंता'. जिन कविताओं का सम्पर्क मिल सका, वो साझा किया है, बाकी दो कविताएं ऎसी हैं जिनका कोई भी सम्पर्क नहीं मिला अंतरताने पर. और हाँ - इस सूची में कोई श्रेणी नहीं बना सकते - सभी प्रिय हैं.

१. क्योंकि सपना है अभी भी - धर्मवीर भारती
यह कविता उस समय पढ़ी थी जब सारे सपने टूटने की कगार पर थे और ऐसे समय में इस कविता का एक-एक उद्गार मन में छाप छोड़ गया.

२. मुझे कदम - कदम पर - गजानन माधव मुक्तिबोध 
कुछ पंक्तियाँ हैं इस कविता में, जैसे हर छाती में आत्मा अधीरा और खुद ही को दिए दिए फिरना... ऐसे भाव जो निकले किसी भी कलम से हों, परिभाषित करते हैं मेरे ही अन्तर्मन को.

३. हिन्दू तन मन हिन्दू जीवन - अटल बिहारी बाजपेयी 
अटल जी की कई छोटी-बड़ी रचनाओं और भावों में यह कविता सबसे अलग इसलिए है क्योंकि यह हिन्दू दर्शन और इतिहास को बहुत ही  सूक्ष्मता और सादगी से बाँध देती है. वैसे "शव का अर्चन, शिव का वर्जन" और "चीर निशा का वक्ष पुनः चमकेगा दिनकर" जैसी पंक्तियों और "कदम मिलकर चलना होगा" जैसी कविताओं को छोड़कर इस कविता को चुनना आसान था क्योंकि अटल जी की अन्य कविताओं से यह मीलों आगे है.

४. पढ़िए गीता - रघुवीर सहाय 
रघुवीर सहाय के स्त्री-विमर्श की अप्रतिम बात यह है कि वो एक क्रूर और सच्चे कवि हैं - विमर्श के बहाने सहारा, सहानुभूति, या दया की जगह उपालम्भ से काम लेते हुए क्रान्ति की सुगबुगाहट से भरे हुए.

५. एक आशीर्वाद - दुष्यन्त कुमार 
बहुत कठिन था दुष्यन्त कुमार की लेखनी के अन्य भावों को दरकिनार कर पाना लेकिन इस कविता में जो गहराई और सम्पूर्णता है, वो अन्यत्र मिलना सम्भावना से परे है. एक ही बात जो अपने मित्र को, बेटी को, और प्रेमिका को सब कुछ कह सके, यह वैसी कविता है.

६. नीड़ का निर्माण - हरिवंश राय बच्चन 
यह चयन शायद सर्वाधिक कठिन था मेरे लिए. बच्चन की सतरंगिणी और निशा-निमन्त्रण की एक-एक पंक्ति जहां प्रिय हो और बात केवल इन दो पुस्तकों पर ही ना रुकती हो तो जो छोड़ना पड़ा, वो कमतर नहीं ठहरता. लेकिन यह वो कविता है, जिसको पढ़कर कितनी ही "रात का उत्पात भय" से निकल कर "आशा का विहंगम" ढूँढा है.

७. यशोधरा - मैथिली शरण गुप्त 
"सखि वे मुझसे कहकर जाते" - एक पंक्ति और गागर में सागर. गुप्त जी की "नर हो न निराश करो मन को" और उर्मिला तथा कैकेयी से आगे बढ़ कर यशोधरा का भावातिरेक सबसे प्रिय रहा है सदैव.

८. मैंने आहुति  बनकर देखा - सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय 
अज्ञेय सच में अज्ञेय हैं. प्रयोगवाद के "ऊगा तारा" के बाद एक शुद्ध अलंकृत कविता, उसमें भी भाव, युद्ध, प्रेम, वियोग, दर्शन, और पता नहीं क्या-क्या कुछ सन्निहित.

९. चाँद और कवि - रामधारी सिंह दिनकर 
"रश्मिरथी" और "कुरुक्षेत्र" को, दिनकर के मूल-स्वरूप वीर रस की अवहेलना कर प्रिय ठहरी शुद्ध कवित्व दार्शनिकता से भरी कविता। लेकिन इसमें भी दिनकर का शौर्य और ओज के प्रति झुकाव साफ़ दिखता है.

१०. घर की याद - भवानी प्रसाद मिश्र 
"सतपुड़ा के घने जंगल" को नकारना थोड़ा मुश्किल था लेकिन जब "तुम बरस लो, वे न बरसें / पांचवें को वे न तरसें" पढ़ा, तो हर सावन में इस कविता का पाठ किया है पिछले दस साल से.

११. कहाँ पे आ गए हैं हम - ओमप्रकाश चतुर्वेदी पराग 
बहुत प्रसिद्ध न तो यह कविता है और न  कवि पर जितनी बार कवि कहता है "ये कौन सा पड़ाव है", यह कविता हम सबकी कहानी बन जाती है.

१२. दान - सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' 
"कुकुरमुत्ता" के ऊपर "दान" को चुनने का निर्णय थोड़ा मुश्किल था. सो निर्धारण हुआ इस तर्क के साथ कि एक तो कुकुरमुत्ता में निराला जी वामपंथी बकवाद को बढ़ावा देते हैं (जो कि उस दौर की सामान्य मतान्धता थी) और दूसरे कि दान की पृष्ठभूमि लखनऊ का लाल पुल है, जहाँ प्रात: भ्रमण के समय निराला जी ने यह कविता लिखी थी. वैसे "तोड़ती पत्थर" और "राम की शक्ति-पूजा" ने भी उलझाया निर्णय करने में.

१३. सावधान - बालकृष्ण राव
यह कविता चेतावनी है हर जननायक को. युधिष्ठिर के बहाने गांधी से लेकर मोदी तक को कि भक्त कहीं चरणस्पर्श करते करते चरणों को और आत्मा को भी पत्थर न कर दें.

१४. नन्हा सा यह मन रख लेना - शान्तिस्वरूप 'कुसुम'
यह ऐसी अभ्यर्थना है कि सुनते ही कोई भी मन विगलित हो उठेगा. और जब यह किशोरवय: में मन पर छाप दी जाये, तब तो और भी अधिक। "चंचल यौवन की लहरों में, तुम मेरा बचपन रख लेना / नन्हा सा यह मन रख लेना". ऐसी कई कवितायों के उपरान्त भी यह एक आश्चर्य ही है कि 'कुसुम' को श्रृंगार रस के मुख्य नामों में नहीं गिना जाता.

१५. तुम्हीं न समझे जब मेरी कविता की कीमत - अज्ञात
किशोरावस्था में, जब बालहंस पढ़ना छूटा नहीं था, तभी बालहंस में यह कविता देखी थी. उस समय ज़्यादा समझ नहीं थी लेकिन कुछ तो अद्भुत लगा था, सो इसको डायरी में लिख कर रख लिया था. कई वर्षों बाद जब सारे निहितार्थ समझ में आये तो गलती समझ में आयी कि कवि का नाम तो उतारना भूल ही गए थे. 

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