The preparation of a new a-picture-a-day series on my photo blog lead to a new poem today.
ये साये
ये परछाईयां,
ये कहते हैं शायद -
कि ज़िन्दगी फ़कत
तारीकियों का मजमा है
या कि सायों से निशां
रोशनी के मिलते हैं!
ज़िन्दगी के दौर भी
परछाईयों से
होते हैं -
कभी सुबूत-ए-रौशनी
कभी तारीकियों की आवाज़ें!
कुछ तेरी याद के साये हैं यहाँ
कुछ मेरे यारों के निशां
चंद ख्वाबों के अक्स हैं शायद
और कुछ एक हैं खयाल-ए-निहाँ!
आज माज़ी का खज़ाना सारा -
ये शौक उल्फ़त का
ये ज़ख्म तेरी यादों के
ये खेल रोशनी-तारीकी का
दुनिया को दिखाया जाये
आज यादों के समन्दर को
उलीचा जाये!